पृष्ठ:क्वासि.pdf/१३

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कलम-कुल्हाड़े के घाट उतार दूंगा। हाँ, देरडू, तुमने क्या लिखा है ? यह कविता ? देखने दो:-- हल ! हल ! चलायो, हल !! हुमक धरित्री की छाती में तुम पैदा कर दो हल-चल ! हल! चलाओ, हल !! (१) क्या सन्ध्या ? क्या रात सवेरा ? क्या मध्याह्न-सूर्य का श्रम में क्या तेरा? क्या मेरा? मिल आज लगानो बल, हल ! हल ! हल ! चलाओ, हल !! ) निज तन-मन का अालत झाड़ो, भूमि सुधारो, काँस उखाड़ो; अाज विजय का झण्डा गाड़ो, रहे न दारिद का दल-दल; हल ! हल ! हल ! चलायो हल !! सब पकड़ो हल तुम मुट्ठी भींच, बैल ले चले उसको खींच, हुलसाओ भू, श्रम-करण सोंच, कृषक अडिग तुम, तुम निश्चल, हल ! हल ! हल ! चलायो हल !! (४) फाड़ो धरती और सुनकर तर विकराल दहाड़,-- काँपे शोषक खीसे काढ़! उर्वर भने भूमि प्रति पल, हल ! हल । हल ! चलाओ हल !! पहाड़, तुम हो भारी सिरजनकारी, अति अमाप है शक्ति तुम्हारी;