पृष्ठ:क्वासि.pdf/१३०

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वासि दी हे मुके तुम्हीं ने तो यह कल कल कल सर लहरी अविरल, अब तो करो एक मेरा यह ओ अपना वह कूल किनारा, मैं क्या लिखू तुम्हें पाती, प्रिय, अब क्या लूमै श द सहारा 2 मुझे नहीं सायुज्य चाहिए, में तो हूँ सामीप्य भिखारी, तुम अपने हिय के मधु रस से, बस, भर दो मेरी लघु झारी, बोलो, मम मन गगन विहारी, कब आएगी मेरी बारी तुम ठहरे युग युग के विजयी, मैं तो हूँ युग युग का हारा ! मै पया लिखू तुम्हें पाती, प्रिय, अन्न वया ले मैं श द सहारा ? के द्रीय कारागार, बरेली दिनाङ्क ७ दिसम्बर १६४३ } एक सौ पाच