पृष्ठ:क्वासि.pdf/१३१

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मरुथल का मृग में तो हू मरुयल का मृग, प्रिय, ( ना जाने कितना प्यासा ! मैने मापने जीवन नन में, बोलो का जाना चौमासा ? में तो ह मरुथल का मृग, प्रिय, हू ना जाने कितना प्यासा । po झिलमिल तरल तर गित जल छल झलक रहा है दिशि दिशि सारा, ज्यों ज्यों उस दिशि धाया यो त्यों दूर हटा जल कल किनारा, तिज मरीचिका के भ्रम में मै दौड रहा हू भारा मारा, अपने लिए 7 जाने क्या हूँ? पर है जग के लिए तमासा । मैं तो हूँ मरुयरा का मृग, प्रिय, ह ना जाने कितना प्यासा ! २ यों ही दोड दौडकर तोडे मिती बार प्रारण ये अपने ! ना जाने, कितने युग से में देख रहा हूँ वारिद सपो !! कि तु निहारी ति मरीचिका मम मृग नयनों की लप झप !!! पणरहित का हुआ, कहो तो मेरे पन का अर्क जवासा ? मे तो हूँ मरुथल का मृग, प्रिय, हूँ ना जाने कितना प्यासा । ३ दौड़ रहा हूँ मरुथल में में झिकका सा, चाट का गढका सा, यह जीवन भी क्या जाएगा जल निन ' है अब यह राटका सा, एक