पृष्ठ:क्वासि.pdf/१३२

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छासि देखो तो, प्रिय, आ पहुचा है यह क्षण जीवन सक्ट का सा, पद बन यहो ! कि घन बन बरसो।। अन तो मेटो पास पिपासा !!! मे तो हू मरुथल का मृग, प्रिय, ना जाने कितना प्यासा ! मेरी नीर भरी बदली, तुम, हो बयों इतनी दूर गगन में - तडप रहा है यह आकुल हिय, तब सनेह घन वारि रागन म ! मेरी सभीनी श्यामा, तुम, रसो मम मन मन ऑगन में । सूसा करठ ओठ पर पपडी, अतर नर है पका पका सा में तो हूँ मरुथल का मृग, प्रिय, ना जाने कितना प्यासा ! | , के द्रीय कारागार, बरेली दिनाल ६ दिसम्बर ३६४३ } कसा सात