पृष्ठ:क्वासि.pdf/१४

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१५ तुम हो अाशा की चिनगारी, तुम मानवता के सम्बल, हल ! हल ! हल ! चलायो हल !! तुम जंगल के मंगल-कर्ता, तुम जन-गण के पोषक, भर्ता, तुम हो क्षधा-व्यथा के हर्ता; तुम्हारे श्रम का फल, हल ! हल ! हल! चलानो हल !! (७) योश्रो, सींचो, और निराश्रमे; पर, जब कौवे, कीर उड़ानो- तब तुम प्रगति-गीत मिल गाओ; सामूहिक कृषि ध्येय अटल ! हृल ! हल ! हल ! चलानो हल !! हूँ ! अच्छा ? यह तुम्हारी कविता है ? तुम तो वास्तव में प्रगतिशील कवि हो । कृषक के हल चलाने के सम पर यह तुम्हारा छोटा सा गीत भी बढ़ चलता है। लेकिन छोटे-छोटे कदम रखकर चलने वाले वामन जैसे इस्त्र छन्द में तुमने कृषक जीवन का अनोखा ठाठ रच दिया है। नई हिन्दी कविता के निर्माण में जो अनेक प्रतिभाशाली कवि लगे हुए हैं, उनमें तुम्हारा महरव- पूर्ण स्थान है। तुम जनता की भावनाओं और उनकी भाव व्यंजना के प्रकारों को बहुत निकट से पहचानते हो। इसलिए तुम्हारस उत्तरदायित्व भी विशेष है। पर, तुम खुद निखर आये हो। मानव प्रगति के तत्व को तुम हृदयंगम कर चुके हो। तुमने सामूहिक कृषि की ओर जो ध्येय के रूप में संकेत किया है, वह तो तुम्हारे क्रान्तिशील व्यक्तित्व एवं चिन्तन का बहुत सुन्दर प्रमाण पर, ऐं ?? यह क्या ??? तुमने यह क्या लिखा है ? एक बिन्दु, इन्दु-मथित सिन्धु-लहर छोड़ चली, लघु ससीम औ' असीम बीच लगी होड़ भली । (१) निज विराट रूप त्याग, विन्दु हुई तन्वंगी, अपरिमेय, अमित मापराशि हुई अण्वंगी,