पृष्ठ:क्वासि.pdf/१४०

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धासि है पशिलता आज हमारी भाट! के रण रण में, प्राणों के पाहुन आए ओ' लौट चले इक क्षण म | अतिथि निहारें श्राज हमारी रीती पतझड वेला, आज हगो में निपट दुदिनों का है जमघट मेला, झडी और पतझड से ताडित जीवन निपट अकेमा, हम खोए से खडे हुए हैं एकाकी आँगन में, प्राणों के पाहुन आए औ' चरो गए इक क्षण में । गणरा कुरीर, कानपुर दिशाक ६ मई १९४८ } एक सौपद्रह