पृष्ठ:क्वासि.pdf/१८

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मुझे नितान्त बाँझ जंचती है। पहावलम्बी साहित्य में यदि सन्तुलन, संग्रम, यथार्थ-दर्शन का अभाव हुआ तो वह साहित्य साहित्य न होकर चोंच का मुरख्या दान जायगा । और, यदि कहीं उसमें अधःपातक मनोविकारों का पुट प्रा गया तो हिन्दी भाषी मानव कदाचित् दानव बनकर रह जायगा । अतः पक्षावली साहित्य निर्माण में हमें विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। किसी भी साहित्य स्रष्टा की कृतियाँ, यदि वे मानव को ऊँचे उठाने. वाली हैं, तो अमर होंगी । श्रन्यथा वे क्षण-स्थायी होंगी । साहित्य सृजन करने बाले में किन-किन गुणों का होना आवश्यक है ? इस प्रश्न का उत्तर किंचित कठिन है। भिन्न-भिन्न रूप से विचार करने वाले जन इसका उत्तर भिन्न-भिन्न रूप से देंगे। मेरे मत में साहित्यष्टा के लिए इन गुणों को प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है:- १. स्वाध्याय, २. कल्पना-शक्ति, ३. शब्द सामर्थ्य, १. मानव-स्वभाव-अध्ययन, १. यथातथ्य-ग्राह ( Grip on Fundamentals) कला-सौष्ठव, ७. स्थिति-सृजन-शक्ति ( Power to create situation) म. जीवन-चित्रण-सामय, १. समाधि-सामथ्र्य (Power of meditation) १०. श्रार्जब-ईमानदरी ( Honesty) जिस साहित्यकार में ये गुण होंगे उसकी कृतियों में वे स्वभावतः ही झलक उठेंगे । निवेदन यह है कि साहित्यिक कृतियों की आलोचना करते समय हमें इन मानदण्डों के श्राश्रय से चलना चाहिए। साथ ही हमें यह भी न भूलना चाहिए कि प्रत्येक देश की कुछ विचार-विशेषता होती हैं। उनको ध्यान में रखे बिना, उस देश के साहित्य, उस देश की कला, सादि के सम्बन्ध में यदि मत-प्रदर्शन किया जाय तो वह एक अशुद्ध बात होगी। किसी देश के साहित्य की बालोचना उस देश के गुण-विशेष की ओर दृक्पात किये बिना की ही नहीं जा सकती। एक देश की साहित्मिक कृतियों पर मनमाने, अधकचरे, उच्छिष्ट बालोचना-सिहान्तों को भारोपित करना उपहासास्पद है। स्वयं मार्क्सवादी दार्शनिक देश-विशेष की राष्ट्रीय विशेषताओं को स्वीकार कर