पृष्ठ:क्वासि.pdf/२०

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किरीटी' और 'नील सिन्धु जल का तल' है-सदा से, प्राक् ऐतिहासिक काल से, एक राष्ट्र रहा है। इस सिद्धान्त के मण्डन में अधिक कहनी व्यर्थ है। इस बात को सभी इतिहास पण्डित एवं सांस्कृतिक धारा में अवगाहन करने वाले विद्वान स्वीकार कर चुके हैं। तब देखना यह है कि वह क्या दग्विषय है, वह कौनसा तत्त्व है, जो इस विभिन्न देश-प्रदेश पाले राष्ट्र में एक राष्ट्रीयता का घोतक है। जो नहीं की विभिन्नताओं को 'सूने मणिगणाइव' ग्रन्थिस करके इस भिन्न देशों वाले महान देश को एक सम्पूर्ण राष्ट्र बना चुका है, वह कौनसा चमत्कार है ? यह श्रात्मकता कहाँ से आई ? यदि हम इस पर विचार करें तो ऐसा प्रतीत होगा कि इस देश को श्रारकता प्रदान करने वाली यह प्रणोदना है जिससे प्रेरित होकर नाल- दीय सूक्त के ऋषि की वाणी मुखर हो उठी थी----कुत याला इयं विसृष्टि...? यह शाश्वत टोह-भाव, यह पुकार, यह टेर- क्वाऽखि ' की यह देर मेरी "यह चटपटा, यह लगन, यह उन्मान-याकांक्षा यही है जो भारत को श्राशा को अनुसन्धानरत किये हुए है। इसी प्रेरणा ने हमारे देश के कांग्मय को गुजार प्रदान किया है। प्रात्म-दर्शन, सत्-पर, बन्धन-मोक्ष---यही इस देश की विशेषता है। उपनिषद-काल, आदि काय-काल, महाकाव्य-काल, पुराए-काल, लन्तकात, वर्तमान काल-सब्ब कालों के घोमाय में यह प्रेरणा दग्गोचर होती है। उपनिषत् का ऋषि कह उठता है---- नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः मेधया, न ना यम् एष वृणुते, तेन लभ्यः । और कठोपन्हिपत्कार का नचिकेता भी इसी आत्मोपलब्धि, आत्मा के अस्तित्व की गुत्थी, सुलझाना चाहता है। वह अपने गुरु यम से पूछता है : येथे प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये अस्तीत्येक एतद्विद्याम् अनुशिष्टः त्वयाह वरणामेष वरस्तृतीयः। "मनुष्य के मरने पर (मनुष्य प्रेते) यह जो शंका (या इयं विचिकित्सतर) है कि कुछ कहते हैं कि वह है ( के अस्तिशति ) श्रीर कुछ कहते हैं कि वह नहीं है [च मुके (आहुः) अयम् न अस्ति इति । इसलिए मैं तुम्हारे द्वारा शिक्षित होकर (स्वया अनुशिष्टः) इस तत्व को जानना चाहूँगा । (एतत् विद्याम्)।