पृष्ठ:क्वासि.pdf/२३

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खाने में फंसाया अथवा बन्द नहीं किया जा सकता। मैं पहले ही यह कह चुका हूँ कि चेतना को केवलमान एक दुरंगिक घटना ( Epi-Phenomenon ) या भौतिक विषय मान लेना बड़ी भारी भूल होगी। सालद केवल भौतिक टफान की सनसनाहट मात्र ही नहीं है। वह इसके अतिरिक्त भी और अछ है। हमारे साहित्य-मानीदियों और तत्वदर्शियों ने मानव को को परमा-शा के रूप में माना है, वह कोई यों ही उन्माद-लाद मान नहीं है। उन मान्यता के पीछे जो सन्तत बह-शाह है, वह इस मानव को उसके परस पद तक पहुँचाने में सहायक बने रहने के विचार से है। इस मानव को मुक्ति का सन्देश देना और इसें-- अर्थात् अपने को भी--बन्धन-पाश से छुड़ाने का सन्तत प्रयत्न करते जाना, यही भारतीया- साहित्य का दरम, अन्तिम, पास उद्देश्य है । भारतीय साहित्य में छह अदित विचारधारा-यह प्रयत्नशीलता-श्रापको निरन्तर यती हुई मिलेगी । करो को, स्वयं को- 'अपने मान को-- सुसंस्कृत करने का प्रचलनही मारतील- साहित्य का-हिन्दी-साहित्य का--ध्येय रहा है, और है। पर प्रश्न उठता है कि संस्कृति क्या है ? इसका उत्तर भिन्न-भिन्न लोगों ने भिन्न-भिन्न रूप से दिया है। कोई द निर्मित संस्कृति में विश्वाल करता है, कोई लुहार-निर्मित संस्कृति में, कोई सुनार निर्मित संस्कृति में और कोई उद्योग रासायनिक (Industrial Chemist ) निमित संस्कृति में । दर्जी की काट से नापी गई संस्कृति प्रायः धोखा देती है। लुहार-निर्मित अर्थात् प्रौद्योगिक संस्कृति भी संकटकारिणी, यहाँ तक कि मानवता-संहार- कारिणी, सिद्ध हो रही है। सुनार-निर्मित टकसाली संस्कृति ने हमारे सामने सञ्चय लोभ-लोभ के राक्षस को खड़ा कर दिया है। और जो रासायनिक संस्कृति की बात मैने कही वह इसलिए कि एक विचारक ने यह प्रतिपाइन्न किया था कि संस्कृति का मानदण्ड कारबोलिक शुसिल है, जितनी अधिक मात्रा में किसी समाज में बह खर्च होगी, जितना अधिक उसका उपयोग होगा, उतने अधिक अंश में वह समाज संस्कृत समझा जायगा। बाल शौच, स्वच्छता के लिए निःसन्देह कारबोलिक एसिड आवश्यक है। पर कारबोलिक एसिड को संस्कृति का मानदण्ड मानना केवल बहिखी वृत्ति का ही परिचायक है। और वास्तव में तो बात यह है कि रासायनिक निर्मित संस्कृति गैस-शुह के रूप में मानवता के लिए संकट रूप सिद्ध हो रही है। तब संस्कृति क्या है ? मेरी मति के अनुसार संस्कृति गान्धी है, संस्कृति विनोबा है, संस्कृति कबीर, तुलसी, सूर, ज्ञानदेव, समर्थ तुकाराम है,