पृष्ठ:क्वासि.pdf/२७

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६२ ७५ विस्मृत तान अभिशाप तुम युग-युग की पहचानी-सी मान छोड़ो फागुन वायु से दिग्-भ्रम इवतारा मनुहार भिक्षा तुम सत्-चित -अवतार, रे मैं तो सजन, प्रा ही रही थी खोलो ये बन्द द्वार मेरे आँगन खंजन पाए तुम मेरी लोल लहर प्रिय मम मन आज श्रान्त नैशयाम कल्प-मान कमला नेहरू की स्मृति में उड़ चला हम तो नियु- पाती मरुथल का मृग पुलकित मम रोम-रोम मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले दान का प्रतिदान प्रिय १०२ १०४ क्या, प्राणों के पाहुन गान-निरत मम मन-खग क्वासि