पृष्ठ:क्वासि.pdf/३१

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कासि श्रतल से कुछ खींच लाना, शून्य में साश्रय विचरना - यदि न यह सम्भाव्य हो तो क्यों न तड़पें प्राणा? रे कवि, लिख विरह के गान। नेह, मानस-जात मेरा, यह चला अय मूर्त होने, मचल उट्टा आज है यह निज स्वरूप अमूर्च खोने; तड़पता है . भाव में संस्फूर्त होने, आत्मरूपाधार को वह खोजता अनजान, रे कवि, लिख विरह के गान! प्राणप्रिय के रूठने की क्यों मिली है सूचना यह ? हो गई क्यों आज उनकी हिय-दशा यो उन्मना यह ? नेह-दानी की विरति की हो रही क्यों व्यञ्जना यह ? शिथिल, दीना पड़ गई क्यों मम अवृत्त उड़ान ? रे कवि, लिख विरह के गान] ६ तप्त प्राणों ने निरन्तर कौन-सी विपदा न झेली ? किन्तु उलझी ही रही फिर भी अभी तक यह पहेलो, सतत अन्वेषण-क्रिया है बन गई जीवन-सहेली आह ! क्या यों ही पड़े रह जायेंगे अरमाच ? २ कवि, लिख विरह के गान! 3 अाम्र-वन के सधन झुरमुट से पपीहे ने पुकारा : 'पी कहाँ ?' मैंने तड़पकर शून्य र निहारा, पी कहाँ ! प्यासे दृगों का है कहाँ दर्शन-सहारा ?