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'क्वासि' की यह टेर मेरी

यह मेरा तीसरा गीत-संग्रह पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। मेरे एक सम्मान्य मित्र ने अपने हृदय की करुणा और दया की भावना मेरे प्रति व्यक्त करते हुए एक बार कहा था कि प्रगतिशील 'नवीन' तो मर गए; अब बच रहे हैं केवल दार्शनिक नवीन। प्रगतिशील नवीन, सम्भव है, या तो मर चुके हों, या कदाचित् वे कभी, उनके अर्थ में, प्रगतिशील रहे ही न हों। हमारी भाषा में इस 'प्रगतिशील', या 'प्रगतिवादी' शब्द की इतनी मल्लिनाथी टीकाएँ हुई हैं कि वास्तविक रूप से इस शब्द के अर्थ का समझना भी दूभर हो गया है। कभी कोई कवि प्रगतिशील हो जाता है, कभी वही परम्परावादी, प्रति गति-युक्त और प्रतिक्रिया-निरत बन जाता है। दो सम्मान्य मित्रों के सम्बन्ध में एक (अपने-आप को मार्क्स-सिद्धान्त-शास्त्री समझने वाले) आलोचक बन्धु ने कहा था कि उनके संग्रहों की "बहुत-सी कविताओं में विषय और भाषा का जो सामञ्जस्य दिखाई देता है, उसके आगे 'कामायनी' को यह (नख से शिख तक मौलिकतापूर्ण) स्थान देना उचित नहीं मालूम देता।" बात यह थी कि डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कामायनी के सम्बन्ध में यह लिख दिया था कि कामायनी नख से शिख तक मौलिक है और यह भी लिख दिया था कि विषय और भाषा का प्रौढ़ सामञ्जस्य जैसा कामायनी में है वैसा वर्तमान हिन्दी कविता में दुर्लभ है। बस इतने पर वे मित्र बिगड़े—कदाचित् इसलिए कि वे स्वर्गीय प्रसाद जी को प्रगतिशील नहीं मानते—और उन्होंने अपनी यह व्यवस्था दे डाली कि डॉक्टर हजारीप्रसाद जी द्वारा की गई कामायनी की प्रशंसा उचित नहीं मालूम देती।

इन मित्रों का यों रुष्ट होना—प्रसाद जैसे (उनकी दृष्टि में कदाचित् परम्परावादी) की यह प्रशंसा सुनकर विचलित होना—समझ में आता है। जिन दो मित्रों का उन्होंने पक्ष लिया है उन्हें वे कभी प्रगतिशील मानते थे।