पृष्ठ:क्वासि.pdf/४२

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मासि पग निहीन हे, पख हीन है, गति युत गह न उरग है, इस तक कभी न आई जग की गति, पथ भूली भूली । कलिका ऐसे तरु पर फूली। खडा हुआ था यह, इतने में सुषमा एक पधारी, श्रो' कह उठो कि आई तेरी अब सिलने की नारी, यह बोला मे ? मै चबूल हूँ, मुझसे केसी यारी ? वह बोली में बनी अपर्णा, यदि तू हे चिरशूली , कलिका यों कह इस पर फूली । आनो, जग के चतुर चितेरो अबलोको यह क्रीडा, यह इसका सामाग्य निहारो, निरसो इसकी ब्रीडा, आओ, चिनित करो तनिक यह इसकी सारम पीडा, अरे, सम्हालो कम्पित कर से अपनी अपनी तूती, कलिका इस बनत पर फूली । ६ इसकी इस प्रियतमा कली का यह अनुराग निहारो, इसकी प्रासापरी प्रिया का स्वरित विहाग निहारो, इसके कॉटों में अनुर जित सुमन पराग निहारो, टुक देशो तो इस मीरों की सेज बी यह सूली, कलिका इन शूलो में फुता। जिला जल उ नाय } दिनाङ्ग १० दिसम्बर १६४२