पृष्ठ:क्वासि.pdf/४८

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वासि अब, ६ निज तिरस्करिणी लपेटे, अभय चल दो आज जग से, अपाथिन रूप देखो, मृत्त से होकर निलग से, कई पूर्व समान धर्मा जा चुके है इसी मग से, नित्य जाते है इसी पथ, जो पधारे जग सदन में । मद्र जनि गूजी गगन म । मनुजे जीवन में रहे जो स्पर विवादी और अनमिल, उ है त त्रीमय बनाने आ गई है मृत्यु झिल मिल , स्वनित लयमय, ताम्म झरत, क्यों न अभिनन स्वन उसिल ? आज लहरें तर 'अमर स्वर मृत्यु तौर्यत्रिय कान म । मद अनि पूँजी गगन में। केनीय कारागार बरेली दिनाङ्क १६ जनवरी, १६३४ } २ अदृश्यकारी पटावरण ३मान वाद्य नृत्य साम्य इक्कीस