पृष्ठ:क्वासि.pdf/५८

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दिन पर दिन बीत चले छिन छिन र अनगिनती दिन पर दिन बीत चले , विफल हुए कितने मम श्राम नए गीत भले। दिन पर दिन बीत चले। ? आह, प्राण, तुमने तो निरवलम्न छोड़ दिया, निज जा से सहसा यों नाता क्यों तोड दिया? बोलो तो, सहसा क्यों मुझसे मुंह मोड तिया ? मानों में था कोई कण्टक तर चरण तत। दिन पर दिन बीत चले। २ बरी भी कभी कभी पा जाते है पाती, उकसाते हो तुम रज दीपक की भी बाता, फिर, प्रिय, मेरी तो है नव कचन की छाती, तन, तब अनपेक्षा यह मुझको ही क्यों कुचले ? दिन पर दिन बीत चते। ३ मुसकाकर छोड चो मेरी मधु शाला तुम ? प्रिय, अब क्या नखोगे ओरों की हाला तुम? इकत्तीस