पृष्ठ:क्वासि.pdf/६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एक और भिन्न है----लेखनी के धनी, सुन्दर वर्णन-सामर्थ्यशील, प्रतिभा- युक्त, जीवन देखे हुए, सुपरित, बहुश्रुत और मौलिक । जब वे इन आलोचक के मित्र थे तब इन महाशय ने उनके सम्बन्ध में लिखा था कि वे प्रतिभाशाली कवि और बालोचक हैं । पर, अब उनकी इनसे नहीं पट रही है, इस कारण इन धुरन्धर पालोचक की दृष्टि में दे उपहाल के विषय हो गए हैं। एक और मित्र है-हिन्दी के उच्च कोटि के कवि, विचारक, उपन्यास- कार, कहानीकार और निबन्ध लेखक । उनका समस्त जीवन साधनामय रहा है-बड़े पैने, कुशाग्रबुद्धि, मौलिक, कल्पनाशील, सहृदय और प्राणवान् । ये ख्यातनामा प्रगति-ध्वजाधारी आलोचक उनसे ऐसे रुष्ट हुए कि उनके सम्बन्ध में कहते-कहते बिलकुल नीचे उतर आये और कहने लगे जिससे आप यह न भूल जाय कि वह मिस मेयो की मानसिक सन्तान हैं। मेरा निवेदन है कि प्रगतिशीलता के नाम पर जहाँ इस प्रकार का नग्न नृत्य-~-अपने राग-द्वेषादि मनोविकारों का ऐसा अचल प्रदर्शन हो रहा हो, वहाँ साहित्य का वास्तविक मूल्यांकन कैसे हो सकता है ? और, इस कारण, मेरे उन मिन्न के शब्दों में यदि बेचारे प्रगतिशील 'नवीन' मर चुके हों तो किम् प्राश्चर्यम्-अतः परम् स्थापनाओं का मूल्य-मान-दण्ड ही जहाँ इतना विकृत, अस्थिर एवं डगमग हो वहाँ उसकी कसौटी पर किसी कवि या साहि- त्यिक कृति का मूल्यांकन कैसे किया जाय ? उग्रतापूर्वक लिखना मैं भी जानता हूँ। पर, इन बालोचक बन्धु के विचारों की श्रालोचना मैं उस रीति से नहीं करूंगा। मैं इन महाशय के अध्ययन का प्रशंसक हूँ। वे पढ़ते हैं, विचार करते हैं, भाषा पर उनका प्रभुत्व है। वे परिश्रमशील हैं। मैं यह भी मान सकता हूँ कि उनकी उग्रता, ज्यंग-उक्तियाँ, कटुवादिता एवं असन्तुलित सम्मति उनके के कारण हैं। किन्तु भाई, इस प्रकार बह जाने से तो काम नहीं चलेगा । स्वयं को यदि हम स्थिर न रख सकें और किसी क्षण, ग्रह समझकर कि अमुक व्यक्ति प्रगति-स्तर से भटक गया है, हम उसे खरी-खोटी सुनाने लगे, तो क्या हमारा वह कर्म सत्-साहित्यालोचन होगा ? जब तक हम ताविक सिद्धान्त को नहीं समझेंगे तब तक काम न चलेगा। हमारे प्रगतिवादी बन्धुश्रों के विचार पदार्थवादी दर्शन की भित्ति पर प्राधारित है। इसलिए यदि हिन्दी के वर्तमान साहित्यकार उस पदार्थ- वादी दर्शन को स्वीकृत नहीं करते तो उनकी कृतियों और पदार्थवादी भालो- चकों के बीच इस प्रकार का झगड़ा चलता ही रहेगा। पदार्थवाद निश्चय ही ऐसा दर्शन है जिसे कुछ लोग सदाशयतापूर्वक स्वीकार करते हैं। हमारी