पृष्ठ:क्वासि.pdf/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

है इसलिए हमें इस पर गहनतापूर्वक विचार करना है। इस सून से मुख्यरूप में दो बातें निष्पन्न होती हैं : प्रथम तो यह कि माल-पुरकालीन पदार्थवाद की धारणा जड़ थी; माक्र्स के अनुसार वह गतिशून्य थी; केवल मात्र बाह्य जगत् के इन्द्रियार्थों अर्थात् इन्द्रियों द्वारा गृहीत बाह्य पदार्थों, को यथार्थ समझ लेना मात्र हो, उनको यथार्थ मान लेना भर ही, उस मालकी पदार्थवाद का उद्देश्य था; पदार्थों के हृदयंगम होने की क्रिया में जो "सेन्द्रिय मानवीय सक्रियता" है, उसकी ओर उस पुराने पदार्थवादी दर्शन का ध्यान नहीं था और, दूसरे यह कि जो कुछ यथार्थ ( Reality) है वह केवल-मात्र वह पदार्थ, वह वस्तु है, जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है। उक्त सूत्र की ये दो मुख्य बातें हैं । निश्चय ही, मार्क्स ने पुराकालीन पदार्थवाद और उनके स्वयं के द्वारा प्रतिपादित तथाकथित वैज्ञानिक पदार्थवाद में जो अन्तर दिखलाया है वह बड़ा विचारपूर्ण, मौलिक एवं ताविक है। मार्क्स की दृष्टि में दर्शन का काम सामाजिक चेतना को जागृत, प्रभावित और चालित करना है। अतः इतना कह देना-भर ही अलम् नहीं है कि इन्द्रिय- ग्राह्य बहिर्जगत् के अतिरिक्क जो कुछ है वह अयथार्थ (Unreality) है। उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा, गम्भीर विचार-शक्ति एवं गहन मौलिकता के बल पर यह सिद्ध किया कि अरे भाई, इन्द्रियार्थ के ग्रहण करने मान की क्रिया में सेन्द्रिय मानवीय कतृत्व निहित है। यह बात मनोवैज्ञानिक आधार पर स्वयं सिद्ध है। इस कारण उन्होंने यह परिणाम निकाला और शास्त्रीय दृष्टि से उचित तथा मानवीय दृष्टि से नितान्त उदात्त यह परिणाम निकाला-कि बाह्य जगत् के हृदयंगम करने मात्र में जब मानवीय कतृत्व है, उस जगत् से प्रति- कृत होने तथा उसके ऊपर प्रतिक्रिया करने का जब यह माननीय कतृत्व (मानव मनोविज्ञान द्वारा सम्मत कतृत्व) निहित है, तब निश्चय ही पदार्थ- वादी दर्शन का यह कर्तव्य है, यही उसकी इतिकर्तव्यता है, यही उसकी विज्ञान सम्मत, सर्कसम्मत सार्थकता है, कि वह प्रत्येक दिशा में मानव-जीवन को शुभ की और परिवर्तित करने की प्रेरणा प्रदान करता रहे । कितना अद्भुत कितना भव्य निष्कर्ष है। जब, फ्योरबारत सम्बन्धी, ऋषि मार्क्स के ये सूत्र पढ़ता हूँ तो उनको स्मृति में मेरा मस्तक झुक जाता है। कितनी प्रखर मेधा ! कितना महान उनका स्पष्ट दर्शन सामर्थ्य !! कितनी गहर गम्भीर मौलिकता !!! निःसन्देह मार्क्स के पूर्व का पदार्थवादी दर्शन गति-शून्य था। मार्स ने उस दर्शन को गति दी, उसे समाज-उपयोगी बनाया और उस दर्शन को इस युग