पृष्ठ:क्वासि.pdf/८७

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अभिशाप एक चुम्बन ही हुमा यह शाप जीवन का भयकर, अधर सम्मेलन बना अनुताप जीवन का भयकर । ? ? अाज सीन्यू हूँ अरे, क्यों राग की सम्पूति चाही ? क्यों न अ यभिचार की चिर रीति जीवन में निनाही? क्यों तडप कर, एक क्षण को, शृङ्खला टूटी था ही? बन रहा अब तो असु दर वह चिर तन सप्न सु दर, एक चुम्बन बन गया अभिशाप जीनन का भगकर । २ श्राज सूखी पत्तियों सा जल उठा है शुक जीवन, ओर, झुलसा जा रहा है फूस सा सम्पूर्ण तन मन, कर रहे निश्वास में चिनगारियों के प्रचलित कन, आज, सहसा फूट निकली अग्नि धारा तीव्र, दुस्तर, एक चुम्बन बन गया अभिशाप जीवन का भयकर । श्री गणेश कुटीर कानपुर दिनाम इकसद