पृष्ठ:क्वासि.pdf/८९

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छासि नयनों म भरी समारी थी, पलकें भारी भारी थी, तुमने दसा था, यू, गोया, कुछ हुत पुरानी यारी श्री, उस दिन ही में हो गई हमारी श्रॉख तनिक विरानी सी, जब तुम आइ पहचानी सी? थी रही चॉदनी छिटक यहाँ, जर तुम आई थी निकट वहाँ, — लगा कि, तुम को देल रा, रह गया चॉद भी ठिठक वहाँ, हम ये स्तम्भित, थी प्रति स्त ध, जन भाई तुम मुसकानी सी ? ओ, युग युग की पहचानी सी। मोगरा कुटीर प्रताप, कानपुर राति १२ बजे दिनाङ्क ५२३॥ तिरसठ