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खग्रास

गया। यह कार्य १६ वी शताब्दी तक सम्पन्न नही हो सका। इस शताब्दी मे कोपरनिकस ने जो क्रान्ति की, उसके फलस्वरूप सूर्य-केन्द्रीय विश्व की भावना दृढता से स्थापित हो गई। यह माना जाने लगा कि यह विश्व सूर्य के चारो ओर केन्द्रित है। अन्त मे यह बात भी मनुष्य ने स्वीकार करली कि सूर्य केवल अपने परिवार के ग्रहो का ही केन्द्र नही, अपितु आकाश मे विद्यमान समस्त नक्षत्रो के संग्रह का भी केन्द्र है।"

"क्या सूर्य-केन्द्रीय विश्व की भावना का चिन्तन की दृष्टि से कुछ प्रभाव पडा?"

"१६ वी शताब्दी मे भू-केन्द्रीय विश्व के स्थान पर सूर्य-केन्द्रीय विश्व की भावना जब स्वीकार की गई, तब इसका चिन्तन की दृष्टि से कुछ प्रभाव अवश्य पडा, किन्तु यह प्रभाव अधिक नही था। स्पष्ट था कि गरम लपटो और गैसो से पूर्ण सूर्य मे मनुष्य के शारीरिक दृष्टि से नाजुक बदन के लिए कोई स्थान नही, और न सूर्य के निकट अधिक ऊँचाई पर ही मनुष्य के लिए कोई स्थान हो सकता है। गत चार शताब्दियो की ब्रह्माण्ड सम्बन्धी विचारधारा मे इस बात से अधिक प्रभाव नही पड़ा कि यह ब्रह्माण्ड भूमि- केन्द्रीय है अथवा सूर्य-केन्द्रीय है। इसके बाद ४० वर्ष पूर्व इस बात की आवश्यकता हुई कि ब्रह्माण्ड सम्बन्धी धारणा मे तीसरा संशोधन किया जाए। यह ऐसा संशोधन था जिससे मनुष्य के अपने स्थान, ब्रह्माण्ड मे उसके महत्व तथा उसके कार्यो सम्बन्धी चिन्तन मे एक सीमा तक गड़बड़ पैदा हो सकती थी तथा इस बात का मनुष्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ने की भी सभावना थी।"

इतना कह कर गूढ पुरुष कुछ रुके। उनकी दृष्टि और गहन हुई, फिर उन्होने कहा–"आकाशगंगाओ की बडी संख्या में विद्यमानता की जानकारी से यह संशोधन अस्तित्व मे आया तथा मनुष्य के गर्व और आत्म-विश्वास पर इसका गहरा असर पडा। सूर्य-केन्द्रीय ब्रह्माण्ड की धारणा का परित्याग आवश्यक हो गया, क्योकि ज्योतिर्विज्ञान द्वारा प्रस्तुत प्रमाणो द्वारा इस बात पुष्टि हो चुकी थी। निश्चित रूप मे भौतिक विश्व मे मनुष्य की