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खूनी औरत का

यह सुन और घबराकर मैंने कहा,--"अरे धर्मावतार ! भला, मैंने खून करने की बात कब सकारी! अजी साहब, मैं तो वहां से भी नहीं भागी थी और उन दोनोंके कट मरने पर-भाग जाने के मौके को हाथ में आया हुआ समझ कर भी-मैं वहांले नहीं भागी थी और खुद उन चौकीदारों के पास जाकर मैंने उन दोनों के कट मरने की बात कही थी।"

हाकिम ने कहा,--"अब मैं कुछ सुनना नहीं चाहता।"

इस पर मैंने खूब जोर से चिल्लाकर कहा,--"मत सुनो! तुम मुझ अनाथ निरपराधिनी की बात मत सुनो ! पर जो हमारे-तुम्हारे, बल्कि सारे जहान के घट-घट में छिपा हुआ बड़ा हाकिम है, वह ज़रूर बेकसूर की पुकार सुनेगा।"

पर इस बात का जवाब दिये बिना ही हाकिम ने मझे यहांले हटाने का हुक्म दिया और कई सिपाही मुझे अपने घेरे में करके वहां ले चलते बने।

कचहरी के बाहर जब मैं निकली तो मेरे कानों में दो आदभियों। की कही हुई ये बातें पहुँचीः-

एक ने कहा,--"वाह, री, औरत ! इसने क्याही माकूल बहस की है ! अगर यह पढ़ी लिखी होती तो अच्छे अच्छे वकीलों के। फान काटती!!!"

“इस पर दूसरे ने कहा,--"तो, खैर मनाओ कि तुम्हारे कान कटने से बच गये !!!

ये सब बातें मेरे कानों को सुनाई तो दी पर मैंने आंखें घुमा कर यह न देखा कि वे बा किन दो शख्शों में हुई थीं । निदान, मैं फिर जेलखाने पहुंचाई गई और कई दिनों तक वहीं पड़ी पड़ी अपने खोटे नसावे को कोसती रही।

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