पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/१४९

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सात खून।


यह सुनकर जेलरसाहब चलेगए, बुझावनसिंह बाहर चहल कदमी करने लगा, मैं कोठरी की दीवार से सट कर अपने एक कंबल पर बैठ गई, और मेरे दाहिने पैर के पास पुन्नी और बाये के पास मुन्नी अपने अपने कंबल बिछाकर बैठगई। फिर हम-तीनों ने अपने अपने कंबल ओढ़ भी लिये।

उन दोनों के साथ क्या बात की जाय, यह मैं सोचही रही थी कि मेरे दाहिने पैर को पुन्नी और बायें को मुन्नी खैंचकर दबाने लगी! यह देखकर मैंने अपने दोनों पैरों को खींचकर कंबल के अंदर छिपा लिया और उन दोनों की ओर मुस्कराहट के साथ देखकर यों कहा,—" क्यों भाई! यह क्या करने लगी थीं?"

इस पर मुन्नी तो खिलखिला कर हँसने लगी और पुन्नी ने यों कहा,—"मुझे जेलर साहब का हुकुम हुआ है कि,—"जब तक आप यहां रहेंगी, तब तक हम दोनों आपकी खिदमत करेंगी!"

यह सुन और हँसकर मैंने उन दोनों से यों कहा,—"वाह, यह भी अजीब तमाशा है! जेल में और खिदमत! फांसी पड़ने वाली के लिये टहलनियों का बंदोबस्त! अरे भाई! जैसी तुम कैदी हो, वैसी ही मैं भी कैदी हूं। वल्कि मैं तो तुम दोनों से भी गई गुजरी हूं। क्योंकि तुमतो कुछ दिनों में यहां से रिहाई पाओगी, पर मेरे लिये तो फांसी का हुक्म होचुका है। ऐसी दशा में यह टहल-चाकरी का स्वांग क्यों? भाई, मैंने तो तुम दोनों को अपनी हमजोली (समबयसी) जानकर इसलिये अपने पास बुला लिया है कि जिसमें आपस में तनिक बात चीत करके अपना जी बहलाऊं। अच्छा, मेरा हाल तो तुम सब जानती ही हो। अब अपनी कहानी सुनाओ।

यह सुनकर पुन्नी कहने लगी,—"हम-दोनों सगी बहिने हैं। मैं बड़ी हूं, मेरा नाम पुन्नी है, और यह मुन्नी छोटी है। मेरी सोलह और मुन्नी की चौदह बरस की उमर है। मेरी-मां लड़कपन