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खूनी औरत का


तेरहवां परिच्छेद।

दो सज्जन ।

"दोषजानमवधीय्र मानसे
धारयन्ति गुणमेच सज्जनाः।
क्षारभावमपनीय गृहणते,
धारिधेः सलिलमेव वारिदाः॥"

(सज्जनविलासे)
 

उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक (वियानतप्हुसेन ) सो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण । बातों ही थानों में उन दोनों को मैने अपनी सारी 'रामकहानी' सुना दी, जिसे सुन फर वे दोनों बेचारे बहुत पछतान लगे और यों कहने लगे कि,-"दुलारी, जो खून तुम्हारे घर में होगए हैं, उनके कसूर में आश्चर्य नहीं कि तुम्ही सजा पा जाओ और यह कसूर तुम्हारे ही गले मढ़ा जाय; पर कुछ पर्वा नहीं; जनम लेकर कोई बार बार नहीं मरता। तुम्हारा धर्म जो नारायण मे बचा दिया, उसके मुकाबिले में फांसी की तखती कोई चीज ही नहीं है। यदि धर्म भौर परमेश्वर कोई चीज हैं, तो वे दोनों तुम्हें अच्छी गति देंगे और परलोक या दूसरे जन्म में तुम सुख पाओगी। फिर यह भी बात है कि यदि तुमने सच-मुच खून म किए होंगे, तो भगवान तुम्हें बचा भी सकते हैं।"

आहा! मैं उन दोनों भले चौकीदारों की हमदर्दी से भरी और सच्ची बातें सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई और कहने लगी,--"हां, भाइयों ! मैं मरगे से नहीं डरती, इसीलिये तो भाप ही आप यहां आकर हाजिर होगई हूं, पर यह खून मैने नहीं किए हैं।"

यह सुनकर दियानतहुसैन ने कहा,--" पर जो तुम यहां न