पृष्ठ:गबन.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

रमा रमेश के घर पहुँचा तो आठ बज गए थे। बाबू साहब चौकी पर बैठे संध्या कर रहे थे। इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा, कोई आधा घंटे में संध्या समाप्त हुई, बोले- क्या अभी मुँह-हाथ भी नहीं धोया, यही लीचड़पन मुझे नापसंद है। तुम और कुछ करो या न करो, बदन की सफाई तो करते रहो। क्या हुआ, रुपए का कुछ प्रबंध हुआ? रमानाथ—इसी फिक्र में तो आपके पास आया हूँ।

रमेश–तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छूट जाओगे। उनसे सारी बातें साफ-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएँ अकसर हो जाया करती हैं। इसमें डरने की क्या बात है! नहीं कहो, मैं चलकर कह दूँ।

रमानाथ–उनसे कहना होता तो अब तक कभी का कह चुका होता! क्या आप कुछ बंदोबस्त नहीं कर सकते?

रमेश कर क्यों नहीं सकता, पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते? मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपए न दें, तब मेरे पास आना। रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहाँ से उठा, पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौवैया में आकाश से फिरते हुए जल-बिंदुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेजी से आगे चलता, तो फिर कुछ सोचकर रुक जाता और दस-पाँच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस गली में। सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयाँ कह सुनाऊँ। मुँह से तो वह कुछ न कह सकता था, पर कलम से लिखने

उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूँगा और बाहर के कमरे में आ बैलूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया और तुरंत पत्र लिखा—प्रिये, क्या कहूँ, किस विपत्ति में फँसा हुआ हूँ। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ रुपए का प्रबंध न हो गया तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जाएँगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लूँ, किंतु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरवी रखकर काम चला लूँ। ज्योंही रुपए हाथ आ जाएँगे, छुड़ा दूंगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुड़ा दूँगा। अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुसकराते हुए आकर बैठ गए और बोले-कहा उनसे तुमने? रमा ने सिर झुकाकर कहा—अभी तो मौका नहीं मिला। रमेश तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा? मैं डरता हूँ कि कहीं आज भी तुम यों ही खाली हाथ न चले जाओ, नहीं तो गजब ही हो जाए! रमानाथ–जब उनसे माँगने का निश्चय कर लिया तो अब क्या चिंता! रमेश आज मौका मिले तो जरा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गए। रमानाथ भूल तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।