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यह कहकर उसने रमा की जेब में हाथ डाल दिया और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया। रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा-कागज मुझे दे दो, सरकारी कागज है। जालपा—किसका खत है बता दो?

जालपा ने तह किए हुए पुरजे को खोलकर कहा—यह सरकारी कागज है! झूठे कहीं के! तुम्हारा ही लिखा।

रमानाथ–दे दो, क्यों परेशान करती हो! रमा ने फिर कागज छीन लेना चाहा, पर जालपा ने हाथ पीछे फेरकर कहा-मैं बिना पढ़े न दूंगी। कह दिया ज्यादा जिद करोगे तो फाड़ डालूँगी। रमानाथ अच्छा फाड़ डालो। जालपा-तब तो मैं जरूर पढ़ंगी।

उसने दो कदम पीछे हटकर फिर खत को खोला और पढ़ने लगी। रमा ने फिर उसके हाथ से कागज छीनने की कोशिश नहीं की। उसे जान पड़ा, आसमान फट पड़ा है, मानो कोई भयंकर जंतु उसे निगलने के लिए बढ़ा चला आता है। वह धड़-धड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और घर के बाहर निकल गया। कहाँ अपना मुँह छिपा ले कहाँ छिप जाए कि कोई उसे देख न सके।

उसकी दशा वही थी, जो किसी नंगे आदमी की होती है। वह सिर से पाँव तक कपड़े पहने हुए भी नंगा था। आह! सारा परदा खुल गया! उसकी सारी कपटलीला खुल गई! जिन बातों को छिपाने की उसने इतने दिनों चेष्टा की, जिनको गुप्त रखने के लिए उसने कौन-कौन सी कठिनाइयाँ नहीं झेली, उन सबों ने आज मानो उसके मुंह पर कालिख पोत दी। वह अपनी दुर्गति अपनी आँखों से नहीं देख सकता। जालपा की सिसकियाँ, पिता की झिड़कियाँ, पड़ोसियों की कनफुसकियाँ सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब कोई संसार में न रहेगा, तो उसे इसकी क्या परवाह होगी कि कोई उसे क्या कह रहा है? हाय! केवल तीन सौ रुपयों के लिए उसका सर्वनाश हुआ जा रहा है, लेकिन ईश्वर की इच्छा है तो वह क्या कर सकता है? प्रियजनों की नजरों से फिरकर जिए तो क्या जिए! जालपा उसे कितना नीच, कितना कपटी, कितना धूर्त, कितना गपोडिया समझ रही होगी। क्या वह अपना मुँह दिखा सकता है?

क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वह नए जीवन का सूत्रपात कर सके, जहाँ वह संसार से अलगथलग सबसे मुँह मोड़कर अपना जीवन काट सके। जहाँ वह इस तरह छिप जाए कि पुलिस उसका पता न पा सके। गंगा की गोद के सिवा ऐसी जगह और कहाँ थी। अगर जीवित रहा, तो महीने-दो-महीने में अवश्य ही पकड़ लिया जाएगा। उस समय उसकी क्या दशा होगी, वह हथकड़ियाँ और बेडियाँ पहने अदालत में खड़ा होगा। सिपाहियों का एक दल उसके ऊपर सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंगे। जालपा भी जाएगी। रतन भी जाएगी। उसके पिता, संबंधी, मित्र, अपने-पराए, सभी भिन्न-भिन्न भावों से उसकी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे। नहीं, वह अपनी मिट्टी यों न खराब करेगा, न करेगा। इससे कहीं अच्छा है कि वह डूब मरे! मगर फिर खयाल आया कि जालपा किसकी होकर रहेगी! हाय, मैं अपने साथ उसे भी ले डूबा! बाबूजी और अम्माँजी तो रो-धोकर सब्र कर लेंगे, पर उसकी रक्षा कौन करेगा? क्या वह छिपकर नहीं रह सकता? क्या शहर से दूर किसी छोटे से गाँव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता।