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संभव है, कभी जालपा को उस पर दया आए, उसके अपराधों को क्षमा कर दे। संभव है, उसके पास धन भी हो जाए, पर यह असंभव है कि वह उसके सामने आँखें सीधी कर सके। न जाने इस समय उसकी क्या दशा होगी! शायद मेरे पत्र का आशय समझ गई हो। शायद परिस्थिति का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो। शायद उसने अम्माँ को मेरा पत्र दिखाया हो और दोनों घबराई हुई मुझे खोज रही हों। शायद पिताजी को बुलाने के लिए लड़कों को भेजा गया हो, चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी। कहीं कोई इधर भी न आता हो। कदाचित् मौत को देखकर भी वह समय इतना भयभीत न होता, जितना किसी परिचित को देखकर। आगे-पीछे चौकन्नी आँखों से ताकता हुआ, वह उस जलती हुई धूप में चला जा रहा था, कुछ खबर न थी, कि इधर, सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे, मैं इतनी दूर निकल आया? रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उसपर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानो उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जाएगा, मगर जेब में रुपए न थे। उँगली में अंगूठी पड़ी हुई थी। उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा-कहीं यह अंगूठी बिकवा सकते हो? एक रुपया तुम्हें दूंगा। मुझे गाड़ी में जाना है। रुपए लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं गिर गए। फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बड़ा भारी नुकसान हो जाएगा।

जमादार ने उसे सिर से पाँव तक देखा, अंगूठी ली और स्टेशन के अंदर चला गया। रमा टिकट-घर के सामने टहलने लगा। आँखें उसकी ओर लगी हुई थीं। दस मिनट गुजर गए और जमादार का कहीं पता नहीं। अँगूठी लेकर कहीं गायब तो नहीं हो जाएगा! स्टेशन के अंदर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा, उसने पूछा-जमादार का नाम क्या है? रमा ने जबान दाँतों से काट ली।

नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाए क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ गया, जमादार ने चरका दिया। बिना टिकट लिए ही गाड़ी में आ बैठा। मन में निश्चय कर लिया, साफ कह दूँगा मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पड़ा, तो यहाँ से दस-पाँच कोस तो चला ही जाऊँगा। गाड़ी चल दी, उस वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय! न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी होगा या नहीं। फिर यह सुख के दिन कहाँ मिलेंगे! यह दिन तो गए, हमेशा के लिए गए। इसी तरह सारी दुनिया से मुँह छिपाए, वह एक दिन मर जाएगा। कोई उसकी लाश पर आँसू बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे। केवल थोड़े से संकोच के कारण उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू से ही, जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दी होती तो आज उसे मुँह पर कालिख लगाकर क्यों भागना पड़ता, मगर कहता कैसे, वह अपने को अभागिनी न समझने लगती-कुछ न सही, कुछ दिन तो उसने जालपा को सुखी रखा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफी था। अभी गाड़ी चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का दरवाजा खुला और टिकट बाबू अंदर आए। रमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जाएगा। इतने आदमियों के सामने उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक्-धक् करने लगा। ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी की गति तीव्र होती जाती थी। आखिर बला सिर पर आ ही गई। टिकट बाबू ने पूछा-आपका टिकट?

रमा ने जरा सावधान होकर कहा-मेरा टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रुपए दिए थे। न जाने किधर निकल गया।

टिकट बाबू को यकीन न आया, बोला—मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहाँ जा रहे हैं?