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रमानाथ–सफर तो बड़ी दूर का है, कलकत्ता तक जाना है। टिकट बाबू-आगे के स्टेशन पर टिकट ले लीजिएगा।

रमानाथ–यही तो मुश्किल है। मेरे पास पचास का नोट था। खिड़की पर बड़ी भीड़ थी। मैंने नोट उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया, पर वह ऐसा गायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हों। लंबालंबा चेचकरू आदमी है। टिकट बाबू-इस विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते हैं, मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।

रमा ने विनीत भाव से कहा—भाईसाहब, आपसे क्या छिपाऊँ। मेरे पास और रुपए नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब समझें, करें। टिकट बाबू-मुझे अफसोस है, बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूँ।

डिब्बे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफूसी करने लगे। तीसरा दर्जा था, अधिकांश मजदूर बैठे हुए थे, जो मजूरी की टोह में पूरब जा रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भाँति अपमानित होते देखकर आनंद पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्का देकर उतार दिया होता तो और भी खुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी झेंप न हुई थी। चुपचाप सिर झुकाए खड़ा था। अभी तो जीवन की इस नई यात्रा का आरंभ हुआ है। न जाने आगे क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी? किस-किसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा? उसके जी में आया, गाड़ी से इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आँखें भर आई, उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा। सहसा एक बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा-कलकत्ता में कहाँ जाओगे, बाबूजी? रमा ने समझा, वह गँवार मुझे बना रहा है, झुंझलाकर बोला-तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊँगा! बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ भी ध्यान न दिया, बोला—मैं भी वहीं चलूँगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जाएगा। फिर धीरे से बोला किराए के रुपए मुझसे ले लो, वहाँ दे देना।

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई साठ-सत्तर साल का बूढ़ा घुला हुआ आदमी था। मांस तो क्या हड्डियाँ तक फूल गई थीं। मूंछ और सिर के बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी सी संदूकची के सिवा उसके पास कोई असबाब भी न था। रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला-आप हबड़े ही उतरेंगे या और कहीं जाएँगे? रमा ने एहसान के भार से दबकर कहा-बाबा, आगे मैं उतर पडूंगा। रुपए का कोई बंदोबस्त करके फिर आऊँगा। बूढ़ा-तुम्हें कितने रुपए चाहिए, मैं भी तो वहीं चल रहा हूँ। जब चाहे, दे देना। क्या मेरे दस-पाँच रुपए लेकर भाग जाओगे। कहाँ घर है? रमानाथ—यहीं, प्रयाग ही में रहता हूँ। बूढ़े ने भक्ति के भाव से कहा, धन्य है प्रयाग, धन्य है! मैं भी त्रिवेणी का स्नान करके आ रहा हूँ, सचमुच देवताओं की पुरी है। तो कै रुपए निकालूँ? रमा ने सकुचाते हुए कहा-मैं चलते ही चलते रुपया न दे सकूँगा, यह समझ लो। बूढ़े ने सरल भाव से कहा-अरे बाबूजी, मेरे दस-पाँच रुपए लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग