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देवीदीन–तो तुम भी घर से भाग आए हो? समझ गया। घर में झगड़ा हुआ होगा। बहू कहती होगी, मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास-बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा। रमानाथ–हाँ बाबा, बात यही है, तुम कैसे जान गए? देवीदीन हँसकर बोला—यह बड़ा भारी काम है भैया! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लड़के-वाले तो नहीं हैं न?

रमानाथ–नहीं, अभी तो नहीं हैं।

देवीदीन छोटे भाई भी होंगे?

रमा चकित होकर बोला—हाँ दादा, ठीक कहते हो तुमने कैसे जाना? देवीदीन फिर ठट्ठा मारकर बोला—यह सब कर्मों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों? रमानाथ–हाँ दादा, है तो।

देवीदीन—मगर हिम्मत न होगी। रमानाथ-बहुत ठीक कहते हो, दादा। बड़े कम-हिम्मत हैं। जब से विवाह हुआ, अपनी लड़की तक को तो बुलाया नहीं। देवीदीन–समझ गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए कहो चोरी करें, भीख माँगें, बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं। तीन दिन से रमा को नींद न आई थी। दिन भर रुपए के लिए मारा-मारा फिरता, रात भर चिंता में पड़ा रहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गई। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरंत अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली और तख्त पर बिछाकर बोला-तुम यहाँ आकर लेटे रहो, भैया! मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूँ।

रमा लेटा रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह भरी आँखों से देखता था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।