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मकदूर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं और फिर यही एक संतान है, बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए?' दयानाथ को अब कोई बात न सूझी, केवल यही कहा—वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें, मैं न कहूँगा कि दो, न कहूँगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता और लूँ तो दूँगा किसके घर से?

रामेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उड़ाकर कहा—मुझे तो विश्वास है कि वह टीके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबंध किसी सर्राफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे—वही रुपए सर्राफ को दे देना। दो-चार सौ बाकी रहे, वे धीरे-धीरे चुक जाएँगे। बच्चा के लिए कोई-न-कोई द्वार खुलेगा ही।

दयानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा-खुल चुका, जिसे शतरंज और सैर-सपाटे से फुरसत न मिले, उसे सभी द्वार बंद मिलेंगे।

रामेश्वरी को अपने विवाह की बात याद आई। दयानाथ भी तो गुलछरें उड़ाते थे, लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर सवार हो गई थी। साल भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गए। बोलीबहू आ जाएगी, तो उसकी आँखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले में जुआ नहीं पड़ा है, तभी तक ये कुलेलें हैं। जुआ पड़ा और सारा नशा हिरन हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।

जब दयानाथ परास्त हो जाते थे, तो अखबार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने का उनके पास यही साधन था।