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कुछ नोट खो गए हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रुपए जमा कर दिए। रतन–मैं तो समझती हूँ, किसी से आँखें लड़ गईं। दस-पाँच दिन में आप पता लग जाएगा। यह बात सच न निकले, तो जो कहो, हूँ। जालपा ने हकबकाकर पूछा-क्या तुमने कुछ सुना है? रतन-नहीं, सुना तो नहीं, पर मेरा अनुमान है। जालपा—नहीं रतन, मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है और चाहे जितनी बुराइयाँ हों। मुझे उन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। रतन ने हँसकर कहा-इस कला में ये लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो! जालपा दृढता से बोली-अगर वह इस कला में निपुण होते हैं, तो हम भी हृदय को परखने में कम निपुण नहीं होतीं। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं भी उनकी स्वामिनी थी।

रतन–अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।

जालपा-नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जीता ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?

रतन-कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था।

जालपा-क्या लेना है? रतन-जौहरियों की दुकान पर एक-दो चीज देखूगी। बस, मैं तुम्हारा जैसा कंगन चाहती हूँ। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपए लौटा दिए। अब खुद तलाश करूँगी।

जालपा–मेरे कंगन में ऐसे कौन से रूप लगे हैं। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल सकते हैं।

रतन—मैं तो उसी नमूने का चाहती हूँ। जालपा–उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब न आता हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी। रतन ने उछलकर कहा—वाह, तुम अपना कंगन दे दो, तो क्या कहना है! मूसलों ढोल बजाऊँ! छह सौ का था न?

जालपा–हाँ, था तो छह सौ का, मगर महीनों सर्राफ की दुकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवाई थी। तुम्हारे खातिर दे दूंगी। जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिए। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो, यही आत्मिक आनंद की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर से बोली-तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूँ। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया, मगर एक बात है। अभी मैं सब रुपए न दे सकूँगी, अगर दो सौ रुपए फिर दे दूं तो कुछ हरज है?