पृष्ठ:गबन.pdf/११८

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वह घाट के समीप पहुँची, तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनी मोटर पर आते देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुँह छिपा ले, पर रतन ने दूर ही से पहचान लिया, मोटर रोककर बोली, कहाँ जा रही हो बहन यह पीठ पर बैग कैसा है?

जालपा ने चूँघट हटा लिया और नि:शंक होकर बोली—गंगा-स्नान करने जा रही हूँ।

रतन–मैं तो स्नान करके लौट आई, लेकिन चलो, तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें घर पहुँचाकर लौट जाऊँगी। बैग रख दो।

जालपा-नहीं-नहीं, यह भारी नहीं है। तुम जाओ, तुम्हें देर होगी। मैं चली जाऊँगी। मगर रतन ने न माना, कार से उतरकर उसके हाथ से बैग ले ही लिया और कार में रखती हुई बोली—क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखू? जालपा—इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज नहीं है।

बैग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो विस्मित होकर बोली-इन चीजों को कहाँ लिए जाती हो? जालपा ने कार पर बैठते हुए कहा-इन्हें गंगा में बहा दूँगी।

रतन ने विस्मय में पड़कर कहा— गंगा में कुछ पागल तो नहीं हो गई हो चलो, घर लौट चलो। बैग रखकर फिर आ जाना।

जालपा ने दृढता से कहा-नहीं रतन, मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊँगी।

रतन–आखिर क्यों? जालपा—पहले कार को बढ़ाओ, फिर बताऊँ। रतन-नहीं, पहले बता दो। जालपा-नहीं, यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ। रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली—अच्छा अब तो बताओगी? जालपा ने उलाहने के भाव से कहा-इतनी बात तो तुम्हें खुद ही समझ लेनी चाहिए थी, मुझसे क्या पूछती हो? अब वे चीजें मेरे किस काम की हैं! इन्हें देख-देखकर मुझे दुःख होता है। जब देखने वाला ही न रहा, तो इन्हें रखकर क्या करूँ? रतन ने एक लंबी साँस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर काँपते हुए स्वर में बोली–बाबूजी के साथ तुम यह बहुत बड़ा अन्याय कर रही हो बहन, वे कितनी उमंग से इन्हें लाए होंगे! तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितना प्रसन्न हुए होंगे! एक-एक चीज उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का घोर अनादर कर रही हो। जालपा विचार में डूब गईं। मन में संकल्प-विकल्प होने लगा, किंतु एक ही क्षण में वह फिर सँभल गई, बोली—यह बात नहीं है बहन! जब तक ये चीजें मेरी आँखों से दूर न हो जाएँगी, मेरा चित्त शांत न होगा। इसी विलासिता ने मेरी यह दुर्गति की है। यह मेरी विपत्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृति नहीं। प्रेम तो मेरे हृदय