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पर अंकित है।

रतन-तुम्हारा हृदय बड़ा कठोर है जालपा, मैं तो शायद ऐसा न कर सकती।

जालपा–लेकिन मैं तो इन्हें अपनी विपत्ति का मूल समझती हूँ। एक क्षण चुप रहने के बाद वह फिर बोली-उन्होंने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, बहन! जो पुरुष अपनी स्त्री से कोई परदा रखता है, मैं समझती हूँ, वह उससे प्रेम नहीं करता। मैं उनकी जगह पर होती, तो यों तिलांजलि देकर न भागती। अपने मन की सारी व्यथा कह सुनाती और जो कुछ करती, उनकी सलाह से करती। स्त्री और पुरुष में दुराव कैसा!

रतन ने गंभीर मुसकान के साथ कहा-ऐसे पुरुष तो बहुत कम होंगे, जो स्त्री से अपना दिल खोलते हों। जब तुम स्वयं दिल में चोर रखती हो, तो उनसे क्यों आशा रखती हो कि वे तुमसे कोई परदा न रखें?

तुम ईमान से कह सकती हो कि तुमने उनसे परदा नहीं रखा?

जालपा ने सकुचाते हए कहा—मैंने अपने मन में चोर नहीं रखा।

रतन ने जोर देकर कहा-झूठ बोलती हो, बिल्कुल झूठ, अगर तुमने विश्वास किया होता, तो वे भी खुलते। जालपा इस आक्षेप को अपने सिर से न टाल सकी। उसे आज ज्ञात हुआ कि कपट का आरंभ पहले उसी की ओर से हुआ। गंगा का तट आ पहुँचा। कार रुक गई। जालपा उतरी और बैग को उठाने लगी, किंतु रतन ने उसका हाथ हटाकर कहा-नहीं, मैं इसे न ले जाने दूंगी। समझ लो कि डूब गए। जालपा—ऐसा कैसे समझ लूँ? रतन–मुझ पर दया करो, बहन के नाते। जालपा-बहन के नाते तुम्हारे पैर धो सकती हूँ, मगर इन काँटों को हृदय में नहीं रख सकती। रतन ने भौहें सिकोड़कर कहा-किसी तरह न मानोगी? जालपा ने स्थिर भाव से कहा हाँ, किसी तरह नहीं । रतन ने विरक्त होकर मुँह फेर लिया। जालपा ने बैग उठा लिया और तेजी से घाट से उतरकर जल-तट तक पहुँच गईं, फिर बैग को उठाकर पानी में फेंक दिया। अपनी निर्बलता पर यह विजय पाकर उसका मुख प्रदीप्त हो गया। आज उसे जितना गर्व और आनंद हुआ, उतना इन चीजों को पाकर भी न हुआ था। उन असंख्य प्राणियों में जो इस समय स्नान-ध्यान कर रहे थे, कदाचित् किसी को अपने अंत:करण में प्रकाश का ऐसा अनुभव न हुआ होगा। मानो प्रभात की सुनहरी ज्योति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है। जब वह स्नान करके ऊपर आई, तो रतन ने पूछाडुबा दिया?

जालपा–हाँ।

रतन-बड़ी निठुर हो।