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कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहाँ के एक हिंदी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपए इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य सा जान पड़ता था। कम से कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहाँ के और भी कितने ही शतरंजबाजों ने उसे हल करने के लिए भरपूर जोर लगाया, पर कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत से आदमी झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी। रमा का इनमें से किसी से भी परिचय न था, पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न रहा गया। बोला- आप लोगों में किसी के पास वह नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रुखाई से कहा हाँ, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहाँ अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपए अपने पास से देने को तैयार हैं।

दूसरा युवक बोला—दिखा क्यों नहीं देते जी, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें? शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाए। इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव छिपा था कि हमें दिखाने में कोई उज्र नहीं है, देखकर अपनी आँखों को तृप्त कर लो, मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे? जान-पहचान की एक दुकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया।

रमा को तुरंत याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहाँ देखा है? एक युवक ने चुटकी ली—आपने तो हल कर लिया होगा!

दूसरा अभी नहीं किया तो एक क्षण में किए लेते हैं!

तीसरा-जरा दो-एक चाल बताइए तो?

रमा ने उत्तेजित होकर कहा, यह मैं नहीं कहता कि मैं उसे हल कर ही लूँगा, मगर ऐसा नक्शा मैंने एक बार हल किया है और संभव है, इसे भी हल कर लूँ। जरा कागज-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूँ।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा जवाब किसके पास भेजना होगा?

एक युवक ने कहा—'प्रजा-मित्र' के संपादक के पास।

रमा ने घर पहुँचकर उस नक्शे पर दिमाग लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहाँ देखा। शायद याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जाएगा। अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पा जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बड़ी-बड़ी मार्के की बाजियाँ खेली थीं, उन सबका