पृष्ठ:गबन.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

'नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूँ। तू झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।'

'तो फिर कहाँ गए थे तुम?'

'बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया और मीठा-मीठा...'

'झूठ है, बिल्कुल झूठ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुँह साफ कहे देता है, यह बहाना है। चरस, गाँजा, इसी टोह में गए थे तुम। मैं एक न मानूँगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सूझती है, यहाँ मेरी मरन हुई जाती है। सबेरे के गए-गए नौ बजे लौटे हैं, जानो यहाँ कोई इनकी लौंडी है।' देवीदीन ने एक झाडू लेकर दुकान में झाडू लगाना शुरू किया, पर बुढिया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा-तुम अब तक थे कहाँ? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूँगी।

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा-क्या करोगी पूछकर, एक अखबार के दफ्तर में तो गया था। जो चाहे कर ले।

बुढिया ने माथा ठोंककर कहा—तुमने फिर वही लत पकड़ी? तुमने कान न पकड़ा था कि अब कभी अखबारों के नगीच न जाऊँगा। बोलो, यही मुँह था कि कोई और!

'तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।'

'खूब समझती हूँ। अखबार वाले दंगा मचाते हैं और गरीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूँ। वहाँ जो आता-जाता है, पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आए दिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल की रोटियाँ तोड़ोगे?'

देवीदीन ने एक लिफाफा रमानाथ को देकर कहा यह रुपए हैं भैया, गिन लो। देख, यह रुपए वसूल करने गया था। जी न मानता हो, तो आधे ले ले!

बुढिया ने आँखें गाड़कर कहा-अच्छा! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो। तुम्हारे रुपए में आग लगा दूँगी। तुम रुपए मत लेना, भैया! जान से हाथ धोओगे। अब सेंतमेंत आदमी नहीं मिलते, तो सब लालच दिखाकर लोगों को फँसाते हैं। बाजार में पहरा दिलावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे! फेंक दो उसके रुपए, जितने रुपए चाहो, मुझसे ले जाओ।

जब रमानाथ ने सारा वृत्तांत कहा, तो बुढिया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गईं, कठोर मुद्रा नरम हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हँस पड़ा। विनोद करके बोली—इसमें से मेरे लिए क्या लाओगे, बेटा?

रमा ने लिफाफा उसके सामने रखकर कहा–तुम्हारे तो सभी हैं, अम्माँ! मैं रुपए लेकर क्या करूँगा?

'घर क्यों नहीं भेज देते? इतने दिन आए हो गए, कुछ भेजा नहीं?'

'मेरा घर यही है, अम्माँ! कोई दूसरा घर नहीं है।'

बुढिया का मातृत्व वंचित हृदय गद्गद हो उठा। इस मातृभक्ति के लिए कितने दिनों से उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण हृदय में जितना प्रेम संचित हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भाँति बाहर निकलने के लिए आतुर हो गया। उसने नोटों को गिनकर कहा–पचास हैं बेटा! पचास मुझसे और ले लो।