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उन्हीं से इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊँगी। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते। कहते हैं, वहाँ बहुत कष्ट होगा, लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलने वाला तो होना चाहिए। वहाँ दो बार हो आई हूँ और जब-जब गई हूँ, बीमार हो गई हैं।

मुझे वहाँ जरा भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन अपने आराम को देखू या उनकी बीमारी को देखू। बहन कभी-कभी ऐसा जी ऊब जाता है कि थोड़ी सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता से इतना भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दे, कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूँगी।

जालपा ने सशंक होकर कहा—यहाँ किसी वैद्य को नहीं बुलाया?

'यहाँ के वैद्यों को देख चुकी हूँ, बहन! वैद्य-डॉक्टर सबको देख चुकी!'

'तो कब तक आओगी?'

'कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है। एक सप्ताह में आ जाऊँ, महीने-दो महीने लग जाएँ, क्या ठीक है, मगर जब तक बीमारी की जड़ न टूट जाएगी, न आऊँगी।'

विधि अंतरिक्ष में बैठी हँस रही थी। जालपा मन में मुसकराई। जिस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी, बुढ़ापे में क्या टूटेगी, लेकिन इस सदिच्छा से सहानुभूति न रखना असंभव था। बोली-ईश्वर चाहेंगे, तो वह वहाँ से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे, बहन!

'तुम भी चलतीं तो बड़ा आनंद आता।' जालपा ने करुण भाव से कहा—क्या चलूँ बहन, जाने भी पाऊँ। यहाँ दिन भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी। वहाँ मेरा जी और घबड़ाया करेगा।

'मेरा दिल तो कहता है कि बाबूजी कलकत्ता में हैं।'

'तो जरा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत खबर देना।'

'यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा।'

'यह मुझे मालूम है। खत तो बराबर भेजती रहोगी?'

'हाँ अवश्य, रोज नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूँगी, मगर तुम भी जवाब देना।'

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुँह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा-क्या है बहन, क्या कह रही हो?

रतन-कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रुपए हैं, तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे, तो खर्च हो जाएँगे।

जालपा ने मुसकराकर आपत्ति की और जो मुझसे खर्च हो जाएँ?

रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा-तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो नहीं हैं।