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कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ!

वसीयत की बात फिर उसे याद आ गई! यह विचार क्यों इनके मन में आया? वैद्यजी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है, भगवान्! यह शब्द अपने सारे संसर्गों के साथ उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आई। उसके आँचल में मुँह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय आँचल में रोकर उसकी बाल आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह! यह आधार भी अब नहीं। महराज ने आकर कहा—सरकार, भोजन तैयार है। थाली परसूँ?

रतन ने उसकी ओर कठोर नजरों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किए चुपके से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दया आ गई। उसने कौन सी बुराई की जो भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज है, जिसे कोई छोड़ सके! वह रसोई में जाकर महराज से बोली-तुम लोग खा लो, महराज! मुझे आज भूख नहीं लगी है।

महराज ने आग्रह किया—दो ही फुलके खा लीजिए, सरकार!

रतन ठिठक गईं। महराज के आग्रह में इतनी सहृदयता, इतनी संवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहाँ कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वही स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा माँग रही थी। उसकी सारी सद्वृत्तियाँ उमड़ उठीं।

रतन को उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज नजर आया। उसने पूछा-क्यों महराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?

महराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिए, जो आज वकील साहब से कहे थे, कुछ-कुछ तो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं।

रतन ने अविश्वास के अंदाज से देखकर कहा तुम भी मुझे धोखा देते हो, महाराज!

महराज की आँखें डबडबा गईं। बोले भगवान् सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबड़ाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।

रतन ने पूछा-यहाँ कोई ज्योतिषी न मिलेगा? जरा उससे पूछते। कुछ पूजा-पाठ भी करा लेने से अच्छा होता है।

महराज ने तुष्टि के भाव से कहा—यह तो मैं पहले ही कहने वाला था, बहुजी! लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो, इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं।

रतन ने दृढता से कहा-सबेरे किसी को जरूर बुला लाना।

'सरकार चिढ़ेंगे!'

'मैं जो कहती हूँ।'