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एक महिला बोली अरे, चंद्रहार नहीं आया?

दीनदयाल ने गंभीर भाव से कहा-और सभी चीजें तो हैं, एक चंद्रहार ही तो नहीं है।

उसी महिला ने मुँह बनाकर कहा-चंद्रहार की बात ही और है!

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा–बेचारी के भाग में चंद्रहार लिखा ही नहीं है।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अँधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चंद्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चंद्रहार नहीं है क्या? शायद सबके नीचे हो, इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया, चंद्रहार नहीं है तो उसके कलेजे पर चोट सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्छा आ जाएगी। वह उन्माद की सी दशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा, जो आज सात वर्ष हुए उसके हृदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उसपर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया? केवल उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसकी समस्त आशाएँ अवलंबित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुँह नोच डाले। उसका वश चलता तो वह चढ़ावे को उठाकर आग में फेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भाँति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न पहनूँगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है! जो रूप-विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएँ, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रुपए खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी तो इतने ही दामों में इसके दूने गहने आ जाते!

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसकी तीन सखियाँ आकर खड़ी हो गईं। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आँखें पोंछ डाली और मुसकराने लगी।

राधा मुसकराकर बोली–जालपा, मालूम होता है, तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई। जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसी दीन-नजर से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है!

हाँ बहन, सब साध पूरी हो गई। इन शब्दों में कितनी अपार मर्मांतक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में से कोई भी न कर सकी। तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो। बासंती ने कहा—जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूँ।

शहजादी बोली-चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए कि देखनेवाले फड़क उठे।

बासंती-तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती है, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुँह फेरकर कहा-ऐसा ही होगा।

राधा-और तो सबकुछ है, केवल चंद्रहार नहीं है।