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रतन-बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपए-पैसे की अब क्या जरूरत है।

मणिभूषण-आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाजिर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाए। अभी से यह फिक्र की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत मिलेगी।

रतन ने लापरवाही से कहा-अभी जल्दी क्या है? कुछ रुपए बैंक में तो हैं।

मणिभूषण-बैंक में कुछ रुपए थे, मगर महीने भर से खर्च भी तो हो रहे हैं। हजार-पाँच सौ पड़े होंगे। यहाँ तो रुपए जैसे हवा में उड़ जाते हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाए। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया—अच्छा तो होगा।

वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नरम बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और भिन्नता मानो भस्म हो गई थी, वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।