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षोडशी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती? मुंशीजी को जरा भी ज्वर आता, तो वह बक-झक करने लगते थे। कभी गाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबंधियों को भी बुला लिया जाए, जिससे वह सबसे अंतिम भेंट कर लें, क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं उनके सामने विमान लिए खड़े थे। रामेश्वरी और सबकुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती। उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था। मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों की फाइल थी। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहाँ बैठे-बैठे घबड़ाने लगता, तो इन फाइलों को उलट-पलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रखा था। उसे खयाल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रखे हुए हैं, उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिए हुए हैं। वह तुरंत दौड़ी हुई ऊपर गई और वह कॉपी उठा लाई। यह नक्शा उस कॉपी में मौजूद था और नक्शा ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पड़ा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा हूँ तो कैसा हो! शायद उनकी निगाह पड़ जाए। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाए।

इस नगर में जब कोई उनका सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सके। कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल किया है, तो इसे देखते ही फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें दो-एक दिन सोचने में लग जाएँगे। मैं लिख दूंगी कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाए। जुआ तो है ही। उन्हें रुपए न भी मिलें, तो भी इतना तो संभव है ही कि हल करनेवालों में उनका नाम भी हो, कुछ पता लग जाएगा। कुछ भी न हो, तो रुपए ही तो जाएँगे। दस रुपए का पुरस्कार रख दूँ। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बड़ा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की ही होगी। इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई, तो उससे न रहा गया।

आज वह पति शोक के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह ताँगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दी और उसे चार आने दे दिए। कुछ आगे और बढ़ी, तो दो कांस्टेबल एक कैदी को लिए जा रहे थे। उसने मोटर रोककर एक कांस्टेबल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा, इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान् का मुँह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा—क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा-यहीं हैं न? तुमने मुझसे न कहा।

मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले-बड़ा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो