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जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली—यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, बहन! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूँगी! मन्नी से कह दो, बँगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जाएगा, मैं तुम्हें न छोड़ेंगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊँ। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की भी आँखें भर आईं। बोली-मुझसे भी वहाँ न रहा जाएगा, सच कहती हूँ। मैं तो कह दूँगी, मुझे नहीं जाना है।

जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली—कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी। रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा-लो, कसम खाती हूँ, न जाऊँगी। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए। मेरे लिए वहाँ क्या रखा है। बँगला भी क्यों बेचूँ, दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूँगी, मैं न जाऊँगी।। सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा-यह शतरंज किसके साथ खेल रही थी?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पासा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह सुनाई, मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे, पागलपन न खयाल करे, लेकिन रतन सुनते ही बागबाग हो गईं। बोली-दस रुपए तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपए कर दो। रुपए मैं देती हूँ। जालपा ने शंका की, लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढता से कहा—कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आवेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जाएगा। अखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जाएगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूँ। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ता चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, वहाँ जाना अच्छा न होगा।

जालपा-तो तुम्हें आशा है?

'पूरी! मैं कल सबेरे रुपए लेकर आऊँगी।'

'तो मैं आज खत लिख रखूँगी। किसके पास भेजूँ? वहाँ का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।'

'वहाँ तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अकसर लोग उसी को पढ़ते नजर आते थे।'

'तो 'प्रजा-मित्र' ही को लिखूँगी, लेकिन रुपए हड़प कर जाए और नक्शा न छापे तो क्या हो?'

'होगा क्या, पचास रुपए ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हँडिया खोकर कुत्तों की जात तो पहचान ली जाएगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधा घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रुपए दे दूँ।'