जालपा ने नीमराजी होकर कहा—इस वक्त कहाँ चलूँ? कल ही आऊँगी।
उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू! बहू!
जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी कि रामेश्वरी पंखा लिए अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गई। रतन ने पूछा-तुम्हें गरमी लग रही है अम्माँजी? मैं तो ठंड के मारे काँप रही हूँ। अरे! तुम्हारे पाँवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?
रामेश्वरी ने लज्जित होकर कहा–हाँ, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहाँ मयस्सर? मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूँ, पर कोई मिलती ही नहीं।
रतन ने अचंभे से कहा तुमसे चक्की चल जाती है?
रामेश्वरी ने झेंप से मुसकराकर कहा—कौन बहुत था। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी, बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।
रतन जाकर जाँत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुसकराकर माची पर बैठ गई और बोली-तुमसे तो अब जाँत न चलता होगा, माँजी! लाओ थोड़ा-सा गेहूँ मुझे दो, देखूँ तो।
रामेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा-अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी! चलो यहाँ से।
रतन ने प्रमाण दिया—मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, माँजी। जब मैं अपने घर थी, तो रोज पीसती थी। मेरी अम्माँ, लाओ थोड़ा सा गेहूँ।
हाथ दुःखने लगेगा। छाले पड़ जाएँगे।
कुछ नहीं होगा माँजी, आप गेहूँ तो लाइए।
रामेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा-गेहूँ घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाजार से कौन लावे?
अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखू। गेहूँ होगा कैसे नहीं।
रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अंदर चली गई और हाँडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हाँड़ी में गेहूँ निकल आए। बड़ी खुश हुई। बोली-देखो माँजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं। उसने एक टोकरी में थोड़ा सा गेहूँ निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर पीसने लगी।
रामेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा-बहू, वह जाँत पर बैठी गेहूँ पीस रही हैं। उठाती हूँ, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे?
जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा—यह तुमने क्या गजब