किया, अम्माँजी! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाए! चलिए, जरा देखू।
रामेश्वरी ने विवशता से कहा-क्या करूँ, मैं तो समझा के हार गई, मानती ही नहीं।
जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूँ पीसने में मगन थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जाँत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने हँसकर कहा-ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।
रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भाँति अनिश्चित भाव से मुसकराई।
जालपा ने और जोर से कहा-आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी। रतन ने भी हँसकर कहा, जितना महीन कहिए, उतना महीन पीस बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा–धेले सेर।
रतन-धोले सेर सही।
जालपा—मुँह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।
रतन–मैं यह सब पीसकर उठूगी। तुम यहाँ क्यों खड़ी हो?
जालपा-आ जाऊँ, मैं भी खिंचा दूँ।
रतन—जी चाहता है, कोई जाँत का गीत गाऊँ!
जालपा–अकेले कैसे गाओगी! (रामेश्वरी से) अम्माँ आप जरा दादाजी के पास बैठ जाएँ, मैं अभी आती हूँ।
जालपा भी जाँत पर जा बैठी और दोनों जाँत का यह गीत गाने लगीं।
मोहि जोगिन बनाके कहाँ गए रे जोगिया।
दोनों के स्वर मधुर थे। जाँत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जाती, तो जाँत का स्वर मानो कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियाँ प्रभात की अपूर्व शोभा से मगन होकर चहक रही हों।