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पुतले बनकर अपने ही मित्रों का गला घोंटते हैं, यह उसे मालूम था, मगर कोई आदमी अपने बुरे आचरण पर लज्जित होकर भी सत्य का उद्घाटन करे, छल और कपट का आवरण हटा दे, तो वह सज्जन है, उसके साहस की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है, मगर शर्त यही है कि वह अपनी गोष्ठी के साथ किए का फल भोगने को तैयार रहे। हँसता-खेलता फाँसी पर चढ़ जाए तो वह सच्चा वीर है, लेकिन अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वार्थ के नीच विचार से, दंड की कठोरता से भयभीत होकर अपने साथियों से दगा करे, आस्तीन का साँप बन जाए तो वह कायर है, पतित है, बेहया है। विश्वासघात डाकुओं और समाज के शत्रुओं में भी उतना ही हेय है, जितना किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे प्राणी को समाज कभी क्षमा नहीं करता, कभी नहीं, जालपा इसे खूब समझती थी। यहाँ तो समस्या और भी जटिल हो गई थी। रमा ने दंड के भय से अपने किए हुए पापों का परदा नहीं खोला था। उसमें कम-से-कम सच्चाई तो होती। निंदा होने पर भी आंशिक सच्चाई का एक गुण तो होता। यहाँ तो उन पापों का परदा खोला गया था, जिनकी हवा तक उसे न लगी थी। जालपा को सहसा इसका विश्वास न आया। अवश्य कोई-न-कोई बात हुई होगी, जिसने रमा को सरकारी गवाह बनने पर मजबूर कर दिया होगा। सकुचाती हुई बोली—क्या यहाँ भी कोई बात हो गई थी?

देवीदीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला-कोई बात नहीं। यहाँ वह मेरे साथ ही परागराज से आए। जब से आए, यहाँ से कहीं गए नहीं। बाहर निकलते ही न थे। बस एक दिन निकले और उसी दिन पुलिस ने पकड़ लिया। एक सिपाही को आते देखकर डरे कि मुझी को पकड़ने आ रहा है, भाग खड़े हुए। उस सिपाही को हुआ। उसने शुबहे में गिरफ्तार कर लिया। मैं भी इनके पीछे थाने में पहुँचा। दारोगा पहले तो रिसवत माँगते थे, मगर जब मैं घर से रुपए लेकर गया, तो वहाँ और ही गुल खिल चुका था। अफसरों में न जाने क्या बातचीत हुई? उन्हें सरकारी गवाह बना लिया। मुझसे तो भैया ने कहा कि इस मुआमले में बिल्कुल झूठ न बोलना पड़ेगा। पुलिस का मुकदमा सच्चा है। सच्ची बात कह देने में क्या हरज है? मैं चुप हो रहा। क्या करता?

जग्गो न जाने सबों ने कौन सी बूटी सँघा दी। भैया तो ऐसे न थे। दिनभर अम्माँ-अम्माँ करते रहते थे। दुकान पर सभी तरह के लोग आते हैं, मर्द भी, औरत भी, क्या मजाल कि किसी की ओर आँख उठाकर देखा हो।

देवीदीन कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गए।

जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहाक्या उनका बयान हो गया?

हाँ, तीन दिन बराबर होता रहा। आज खतम हो गया।

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा-तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूँ?

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुसकरा पड़ा। बोला–हाँ और क्या, जिसमें जाकर भंडाफोड़ कर दो, सारा खेल बिगाड़ दो! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं मिलने पाता। कड़ा पहरा रहता है। इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खड़ा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानो ससुराल आया हो। धीरेधीरे आकर खड़ा हो गया। जालपा ने कहा-मुँह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। गोपी लजाकर फिर बाहर चला गया।

देवीदीन ने मुसकराकर कहा हमारे सामने न खाएँगे। हम दोनों चले जाते हैं। तुम्हें जिस चीज की जरूरत हो,