पृष्ठ:गबन.pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हमसे कह देना, बहूजी! तुम्हारा ही घर है।

भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है।

जग्गो ने गर्व से कहा-वह तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे।

जालपा ने मुसकराकर कहा—अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा, माँजी। मैं बना दिया करूँगी।

जग्गो ने आपत्ति की-हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है, बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्या बनें! जालपा हमारी बिरादरी में भी तो दसरों का खाना मना है।

जग्गो–यहाँ तुम्हें कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा—यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊँ। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया!

देवीदीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नजरों से देखकर कहा-बहू ने बात पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को जरा आराम करने दो।

दोनों नीचे चले गए, तो गोपी ने आकर कहा—भैया इसी खटीक के यहाँ रहते थे क्या? खटीक ही तो मालूम होते हैं।

जालपा ने फटकारकर कहा-खटीक हों या चमार हों, लेकिन हमसे और तुमसे सौगुने अच्छे हैं। एक परदेशी आदमी को छह महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया, पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत! यहाँ तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है। अगर यह नीचे हैं, तो हम इनसे कहीं नीचे हैं।

गोपी मुँह-हाथ धो चुका था। मिठाई खाता हुआ बोला—किसी को ठहरा लेने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दान-पुण्य करे, पर रहेगा तो चमार ही।

जालपा–मैं उस चमार को उस पंडित से अच्छा समझूगी, जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता है।

जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर घूमने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने की न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी, रमा को कैसे इस दलदल से निकाले? उस निंदा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान आहत हो उठता था। हमेशा के लिए वह सबकी आँखों से गिर जाएँगे, किसी को मुँह न दिखा सकेंगे। फिर बेगुनाहों का खून किसकी गरदन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन अपराधी है, कौन निरपराध है, कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ के, सभी सजा पा जाएँगे। शायद दो-चार को फाँसी भी हो नाए। किस पर यह हत्या पड़ेगी? उसने फिर सोचा, माना किसी पर हत्या न पड़ेगी। कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं, लेकिन अपने स्वार्थ के लिए, ओह! कितनी बड़ी नीचता है। यह कैसे इस बात पर राजी हुए! अगर म्युनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता, उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आए! अब अगर मालूम भी हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी कुछ नहीं कर सकती,