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'अब हुजूर से क्या कहूँ!'

'मत बको।'

'हुजूर!"

'मत बको, डैम!'

रसोइए ने फिर कुछ न कहा। बोतल लाया, बर्फ तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खड़ा हो गया। रमा को इतना क्रोध आ रहा था कि रसोइए को नोच खाए। उसका मिजाज इन दिनों बहुत तेज हो गया था। शराब का दौर शुरू हुआ, तो रमा का गुस्सा और भी तेज हो गया। लाल-लाल आँखों से देखकर बोला—चाहूँ तो अभी तुम्हारा कान पकड़कर निकाल दूं। अभी, इसी दम! तुमने समझा क्या है!

उसका क्रोध बढ़ता देखकर रसोइया चुपके से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो-चार लुकमे खाकर बाहर सहन में टहलने लगा। यही धुन सवार थी, कैसे यहाँ से निकल जाऊँ? एकाएक उसे ऐसा जान पड़ा कि तार के बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हाँ, कोई खड़ा उसकी तरफ ताक रहा है। शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रमानाथ का दिल धड़कने लगा। कहीं षड्यंत्रकारियों ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है! यह शंका उसे सदैव बनी रहती थी। इसी खयाल से वह रात को बँगले के बाहर बहुत कम निकलता था। आत्म-रक्षा के भाव ने उसे अंदर चले जाने की प्रेरणा दी। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर निकली। उसके प्रकाश में रमा ने देखा, वह अँधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी साफ नजर आ रही है। फिर उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई, कोई मर्द यह वेश बदलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर बढ़ती गई, यहाँ तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज रमा की तरफ फेंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट गया, मगर वह केवल एक लिफाफा था।

उसे कुछ तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा, तो वह छाया अंधकार में विलीन हो गई थी। रमा ने लपककर वह लिफाफा उठा लिया। भय भी था और कौतूहल भी। भय कम था, कौतूहल अधिक। लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके हृदय में फुरहरियाँ-सी उड़ने लगीं। लिखावट जालपा की थी। उसने फौरन लिफाफा खोला। जालपा ही की लिखावट थी। उसने एक ही साँस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लंबी साँस ली। उसी साँस के साथ चिंता का वह भीषण भार, जिसने आज छह महीने से उसकी आत्मा को दबाकर रखा था, वह मनोव्यथा, जो उसका जीवनरक्त चूस रही थी, वह सारी दुर्बलता, लज्जा, ग्लानि मानो उड़ गई, छू-मंतर हो गई। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व, इतना आत्मविश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोगा से कह दूँ, मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है, लेकिन फिर खयाल आया, बयान तो अब हो ही चुका, जितना अपयश मिलना था, मिल ही चुका, अब उसके फल से क्यों हाथ धोऊँ? मगर इन सबों ने मुझे कैसा चकमा दिया है! और अभी तक मुगालते में डाले हुए हैं।

सब-के-सब मेरी दोस्ती का दम भरते हैं, मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाए हुए हैं। अब भी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदल दूं, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो। यही न होगा, मुझे कोई जगह न मिलेगी। बला से, इन लोगों के मनसूबे तो खाक में मिल जाएंगे। इस दगाबाजी की सजा तो मिल जाएगी और, यह कुछ न सही, इतनी बड़ी बदनामी से तो बच जाऊँगा। यह सब शरारत जरूर करेंगे, लेकिन झूठा इलजाम लगाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं? जब मेरा यहाँ रहना साबित ही नहीं तो मुझ पर दोष ही क्या लग सकता