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बदलना है, बस और बातें आप आ जाएँगी।

रमा सिर झुकाए हुए सुनता रहा।

जालपा ने और आवेश में आकर कहा-अगर तुम्हें यह पाप की खेती करनी है, तो मुझे आज ही यहाँ से विदा कर दो। मैं मुँह में कालिख लगाकर यहाँ से चली जाऊँगी और फिर तुम्हें दिक करने न आऊँगी। तुम आनंद से रहना। मैं अपना पेट मेहनत-मजूरी करके भर लूँगी। अभी प्रायश्चित्त पूरा नहीं हुआ है, इसीलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूँ, यह हमारा सर्वनाश करके छोडेगी।

रमा के दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला–चाहता तो मैं भी हूँ कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे।

तो बचाते क्यों नहीं? अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो, तो मैं चलूँ। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलूँगी और तुम्हारे सुपरिंटेंडेंट साहब से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दूँगी।

रमा का सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति वह न कराना चाहता था कि उसकी स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला-तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूँगा।

जालपा ने जोर देकर कहा-साफ बताओ, अपना बयान बदलोगे या नहीं?

रमा ने मानो कोने में दबकर कहा-कहता तो हूँ, बदल दूँगा।

मेरे कहने से या अपने दिल से?

तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से। मुझे खुद ही ऐसी बातों से घृणा है। सिर्फ जरा हिचक थी, वह तुमने निकाल दी।

फिर और बातें होने लगीं। कैसे पता चला कि रमा ने रुपए उड़ा दिए हैं? रुपए अदा कैसे हो गए? और लोगों को गबन की खबर हुई या घर ही में दबकर रह गई? रतन पर क्या गुजरी-गोपी क्यों इतनी जल्द चला गया? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उसी तरह आवारा फिरा करते हैं? आखिर में अम्माँ और दादा का जिक्र आया। फिर जीवन के मनसूबे बाँधे जाने लगे। जालपा ने कहा-घर चलकर रतन से थोड़ी सी जमीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें।

रमा ने कहा-कहीं उससे अच्छा है कि यहाँ चाय की दुकान खोलें। इस पर दोनों में मुबाहसा हुआ। आखिर रमा को हार माननी पड़ी। यहाँ रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था, भाइयों को शिक्षा न दे सकता था और न माता-पिता की सेवा-सत्कार कर सकता था। आखिर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य है। रमा निरुत्तर हो गया।