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अपमान रतन जैसी मानिनी स्त्री के लिए असह्य था। माना, कमाई पंडितजी की थी, पर यह गाँव तो उसी ने खरीदा था, इनमें से कई मकान तो उसके सामने ही बने, उसने यह एक क्षण के लिए भी न खयाल किया था कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिंता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके सँवारने और सजाने में वही आनंद आता था, जो माता अपनी संतान को फलते-फूलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी, पर पति की आँखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं! अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आएगी, तो वह चाहे रुपए को लुटा देती या दान कर देती, पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बड़ी आमदनी थी। क्या गरमियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रखे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए! यही स्वप्न! इसके सिवा और था ही क्या! जो कल उसका था, उसकी ओर आज आँखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती! कितना महँगा था वह स्वप्न! हाँ, वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे खुद भीख माँगनी पड़ेगी और कोई आश्रय नहीं! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा!

सहसा उसके विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ? क्यों दूसरों के द्वार पर भीख माँगूं? संसार में लाखों स्त्रियाँ मेहनत-मजदूरी करके जीवन का निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती? क्या मैं कपड़ा नहीं सी सकती? किसी चीज की छोटी-मोटी दुकान नहीं रख सकती? लडके भी पढ़ा सकती हैं। यही न होगा, लोग हँसेंगे, मगर मुझे उस हँसी की क्या परवाह! वह मेरी हँसी नहीं है, अपने समाज की हँसी है।

शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गए। मणिभूषण ने आकर कहा-चाचीजी, आप जो-जो चीजें कहें, लदवाकर भिजवा दूं। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।

रतन ने कहा-मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आई थी। उसी तरह लौट जाऊँगी।

मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा-आपका सबकुछ है, यह आप कैसे कहती हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पंद्रह रुपया किराया है। मैं तो समझता हूँ आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीजें आप कहें, मैं वहाँ पहुँचा दूँ।

रतन ने व्यंग्यमय आँखों से देखकर कहा तुमने पंद्रह रुपए का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया! इतना बड़ा मकान लेकर मैं क्या करूँगी! मेरे लिए एक कोठरी काफी है, जो दो रुपए में मिल जाएगी। सोने के लिए जमीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो, उतना ही अच्छा!

मणिभूषण ने बड़े विनम्र भाव से कहा-आखिर आप चाहती क्या हैं? उसे कहिए तो!

रतन उत्तेजित होकर बोली–मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊँगी। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मेरे लिए वैसी ही है जैसी किसी गैर आदमी की चीज, मैं दया की भिखारिणी न बनूँगी। तुम इन चीजों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं जरा भी बुरा नहीं मानती! दया की चीज न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हजारों विधवाएँ हैं, जो मेहनत-मजूरी करके अपना निर्वाह कर