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भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?

ऐनकबाज देवी ने उदंडता से कहा-नाक काट लूँ! बस नकटा बनाकर छोड़ दूँ।

'और जानती हो, मैं क्या करूँ?'

'नहीं! शायद गोली मार दोगी!'

'न! गोली न मारूँ। सरे बाजार खड़ा करके पाँच सौ जूते लगवाऊँ। चाँद गंजी हो जाए!'

'उस पर तुम्हें जरा भी दया न आएगी?'

'यह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सजा तो यह है कि किसी ऊँची पहाड़ी से ढकेल दिया जाए. अगर यह महाशय अमरीका में होते, तो जिंदा जला दिए जाते!'

एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा-क्यों व्यर्थ में मुँह खराब करती हो? वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो, उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। अपनी माँ या बहन को देख ले, तो जरूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके हृदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।

ऐनक वाली महिला ने व्यंग्य किया जब अपने पाँव काँटा चुभता है, तब आह निकलती है?

जालपा अब वहाँ न ठहर सकी। एक-एक बात चिनगारी की तरह उसके दिल पर फफोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे, यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों? वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जाएगी, हो जाए। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन गरीबों की जान बच जाए! जनता को तो मालूम हो जाएगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुँह से एक बार आवाज निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी जबान पकड़ ली। आखिर उसने वहाँ से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।

देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला—क्या घर चलती हो, बहूजी?

जालपा ने आँसुओं के वेग को रोककर कहा हाँ, यहाँ अब नहीं बैठा जाता।

हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा—पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुँघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज का असर नहीं हो सकता।

जालपा ने घृणा-भाव से कहा-यह सब कायरों के लिए है।

कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा—क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? कैदियों का यहीं फैसला हो जाएगा। देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया।

बोला-नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।