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देवीदीन तुम्हारी जैसी मरजी, जी चाहे, इसी बखत चलो, मैं तैयार हूँ।

जालपा–थक गए होगे?

देवीदीन-इन कामों में थकान नहीं होती बेटी।

आठ बज गए थे। सड़क पर मोटरों का ताँता बँधा हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हजारों स्त्री-पुरुष बनेठने, हँसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेक न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा सा मिट्टी का घरौंदा बनाए बैठा है। देश बह जाए, उसे परवाह नहीं। उसका घरौंदा बचा रहे! उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला हृदय बाजार को बंद देखकर खुश होता। सभी आदमी शोक से सिर झुकाए, त्योरियाँ बदले उन्मत्त से नजर आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानी थी कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकड़ियों के गिरने से एक हलकोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।