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विराग उसके दिल पर छाया रहता था।

सातवाँ दिन था। आठ बज गए थे। आज एक बहुत अच्छी फिल्म होने वाली थी। एक प्रेम कथा थी। दारोगाजी ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि जोहरा आ पहुँची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आँख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल सँवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हाँ, जोहरा का वह सादा, आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ। वह केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। होंठ मुरझाए हुए और चेहरे पर क्रीड़ामय चंचलता की जगह तेजमय गंभीरता झलक रही थी। वह एक मिनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली-क्या मुझसे नाराज हो? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-गछे?

रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। जोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा—क्या यह खफगी इसलिए है कि मैं इतने दिनों आई क्यों नहीं!

रमा ने रुखाई से जवाब दिया-अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आई! यह कहने के साथ उसे खयाल आया कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूँ। लज्जित नजरों से उसकी ओर ताकने लगा। जोहरा ने मुसकराकर कहा-यह अच्छी दिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी तो आप बिगड़ रहे हैं। क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाने में पूरा हो जाएगा? तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा था, जो ऊपर से फल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मजबूत है।

रमा ने बेदिली से पूछा-है कहाँ? क्या करती है?

जोहरा-उसी दिनेश के घर है, जिसको फाँसी की सजा हो गई है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और माँ है। दिन भर उन्हीं बच्चों को खिलाती है, बुढिया के लिए नदी से पानी लाती है। घर का सारा काम-काज करती है और उनके लिए बड़े-बड़े आदमियों से चंदा माँग लाती है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद थी, न रुपए थे। लोग बड़ी तकलीफ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें ढाढ़स तो देता। जितने साथी-सोहबती थे, सब-के-सब मुँह छिपा बैठे। दो-तीन फाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला दिया।

रमा की सारी बेदिली काफूर हो गई। जूता छोड़ दिया और कुरसी पर बैठकर बोले-तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से बताओ, तुमने तो बीच में से कहना शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुँची, पता कैसे लगा?

जोहरा कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटीक के पास गई। उसने दिनेश के घर का पता बता दिया। चटपट जा पहुँची।

रमानाथ–तुमने जाकर उसे पुकारा, तुम्हें देखकर कुछ चौंकी नहीं? कुछ झिझकी तो जरूर होगी!

जोहरा मुसकराकर बोली—मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गई और ब्रह्म-समाजी लेडी का स्वाँग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन सी बात है, जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हूँ, या क्या